Saturday, June 4, 2011
सावधान बदल रही है धरती........
जैव विविधता जैसा की शब्दों में निहित है । छोटे से लगाकर जीवन क्रम का हर बिंदु इसमें समाहित है । माइक्रोओर्गानिज्म से लगाकर व्हेल जैसे महाकाय जीव तक को जैवविविधता ने समेटा है तो वनस्पतियों का क्रम भी, जीवन के अनिवार्य तत्व इसमें शामिल ही है। जीवन के वे तमाम अंश जिनमे सुन्दरता, क्रूरता, विभत्सता, आश्चर्य, डर, संगीत का नवरस और मुस्कान सिमटी है तो वह प्रकृति का ही प्रांगन है जहां विभिन्न जीवजंतु अपना जीवनक्रम पूरा करते दीखते है। मंद स्वच्छंद हवा जब थम जाती है तब उसकी अनिवार्यता का अंश महसूस होता है। यह हवा जब अंधड़, झंझावत, बवंडर और तूफ़ान का रूप धर लेती है तब आतंक की कहानी लिख डालती है। पानी के साथ भी यही कुछ होता है तो धरती का कम्पित होना, भूस्खलन, ज्वालामुखी की विकराल भयावहता हमसे छुपी नहीं है। बावजूद इस सबके धरती पर जीवन बना हुआ है। समंदर की गहराई तक में जीव खोजे गए है। ज्वालामुखीय चट्टानों के ठंडा न हो पाने के बावजूद वहां धरती पर जीवन बना हुआ है । समंदर के भीतर की अतल गहराईयों तक में जीव खोजे गए हैं। ज्वालामुखीय लावे के पूर्ण ठन्डे होने के पहले वनस्पति और जीवन चक्र वहां देखने को मिला है। विकटतम परिस्थितियों में भी जीवन धरती पर बरसो से छाया है इन सबका कारण हमारे आध्यात्म का पञ्च महाभूत जिनमे अग्नि, जल, वायु, मिटटी(धरती), आकाश(यूनिवर्स) शामिल है मालूम होता है।प्राकृतिक व्यवस्था का यह चक्र दुनिया के सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी यानी मानव के द्वारा ही टूटा है। आज जब हम जैव विविधता दिवस मनाते हैं तब गौरतलब हो जाता है की धरती और उसके चक्र को नुकसान पहुंचा तो कैसे? जहां तक उल्का पिंड से नुकसान होने की बात है तो यह कोई ६५० करोड़ वर्ष पहले घटित होना अनुमानित है। मगर आश्चर्य की बात है की मगरमच्छ और गेंडे आज भी मौजूद हैं और देखे जाते है। बड़ी छिपकलियों में कमोडो ड्रेगन है तो बड़े एनाकोंडा जैसे सर्प भी। काक्रोच को सदियों पुराना जीव माना जाता है। कुछेक जीव अपना सम्पूर्ण जीवन धरती के भीतर ही गुजार देते हैं। तो कई पशु परिंदे है जो हमारे आस पास हमारे सहवासी होकर जी रहे हैं। जंगल में इंसान ने वन्य पशुओं के साथ जीना सीखा और अब तक की ज्ञात अवधारणा है की अनेको कबीलाईयों ने प्रकृति के प्रांगन में अपना अस्तित्व बनाए रखा। आधुनिक कलपुर्जों का इस्तेमाल होना बहुत पुरानी बाते निश्चित नहीं हो सकती मगर पशु आदि साधनों का इस्तेमाल कृष्ण युग से चर्चा में आया है। आज के जो भौतिकी और रसायन के आविष्कार हैं उन्होंने मनुष्य को परमाण्विक रूप से सशक्त बनाया और जीवन को सुविधा पूर्ण बनाया है। सत्ता का सिलसिला देखें और इतिहास को टटोलें तो बारम्बार देखने में आता है की जीत या फतह करने के लिए खाद्यान्न नष्ट कर देना, पानी में जहर दाल देना शत्रु को कमजोर करने की तह में रहा। भारत आज बलशाली है तो इसकी तह में प्राकृतिक संसाधन है। आज इन प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तेजी से हो रहा है जो आगे जाकर हमें कमजोर बना सकता है, हमें अपनी मान्यता बदलना पड़ेगी और इन तत्वों का सरक्षण करना पड़ेगा। पानी, हवा, जमीन का दूषण जारी है तो खाद्यान्न की प्रकृति पर प्रहार होने लगे हैं इसे समझने की जरूरत है। कृषि उपयोगी भूमि का शहरी करण औद्योगिकीकरण लगातार जारी है ही।अब आस पास की बात करें सारी पहाड़ियां बंजर है। बारिश का रोका जाने वाला पानी सिंचाई में बेतहाशा इस्तेमाल किया जा रहा है शहरी आबादी द्वारा नलों से प्राप्त पेयजल का मात्र 4% इस्तेमाल पीने के तथा भोजन बनाए में प्रयुक्त हो रहा जबकि 90 % पानी प्रदूषित होता है। अब थोड़ी जाग्रति आई है जो पक्षियों के पीने लिए पानी रखा जाने लगा है। जंगल के प्राकृतिक स्त्रोतों की देखभाल की जरूरत है जो वन्य प्राणियों को भीषण गर्मी के दौर तक पेयजल उपलब्ध करा सके और कुछ चिन्हित स्थानों पर ट्रेवर टेंक बनाए जाने की आवश्यकता भी है।भूगोल के आंकड़े देखें आज ट्रोपोस्फियर, स्ट्रेटोस्फियर तथा आयोनोस्फियर में कितनी तबदीली वायुदाब में हो चुकी है देखना पड़ेगा, वातावरण में गैस के कम्पोजीशन की थाह लेने की जरूरत भी है। सिर्फ यह कह देना की ओजोन गैस की परत में क्षति हुई है पर्याप्त नहीं। सूरज पर सुनामी का मामला नासा ने जाहिर किया है उनके मुताबिक़ आज मानसून का पैटर्न बदल चुका है।सी लेवल को भी पुनः अंकित किए जाने की जरूरत हो क्योंकि लगातार सतह पर तबदीली जारी है। सिस्मिक वेव लगातार बढती दिख रही है तो ज्वालामुखी फिर से फटने लगे है। कल यूरोप में ज्वालामुखी फटने की बात सुनी गई और यही क्षेत्र लार्ज हेड्रोंन कोलाईडर का भी है। हमने उत्तरी ध्रुव के खिसकने की बात को कितना गंभीरता से लिया है ? मायक्रोबायोलोजिकल, मेकेनिकल, केमिकल वेदरिंग के मृदा तत्वों में प्रभाव तलाशने की आवश्कता बन आई है मगर भूगर्भशास्त्रीयो की कितनी सलाह ली जा रही है हम नहीं जानते । आज खनिजों का जितना दोहन किया जा रहा है उसकी गर्त में हमारी उम्र में जो लूट सकें उतना लूट लेने का काम होने लगा है। मिटटी निर्माण की मायक्रो बायोलोजिकल एक्टिविट पर ध्यान नहीं है। जमीन के भीतर बाहर पानी का सिस्टम बिगड़टा जा रहा है पर किसका ध्यान है? ग्लेशियर पिघल कर ३.७५ कीलोमीटर पीछे धकेले जा चुके हैं । कार्बन का इमिशन प्रतिदिन बढ़ चुका है। खड़े वाहन में जब जब भी जाकर बैठा जाना होता है तब तब भीतर भट्टी की तरह गर्म वायु का अहसास होता है यह वायु भी वातावरण में घुल जाती है जो तापमान बढ़ाती है मगर चिंता किसे? वहां चलने के बाद सिर्फ गैस ही तो नहीं जो तापमान प्रभावित करे, उसके गर्म हुए इंजन की उष्णता का प्रभाव भी तो पड़ता ही है जिसे शामिल किए जाने की जरूरत है । मानसून और बादलों का चक्र प्रभावित हुआ है सिर्फ इतनी चिंता जाता लेना काफी है क्या?सारे वातावरण की चिंता कर भी लें मगर वैज्ञानिक क्रान्ति को जीवन का हिस्सा बना चूका समाज कब जागेगा ? शायद व्यक्ति का जीवन कभी परिवर्तित होने की संभावना नहीं है और हमारी चिंता बेवजह है । हमें जो होरहा है अच्छा है की तर्ज पर जीना होगा यही हमारी बेबसी है ।
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