Friday, February 18, 2011

एक बार फिर मिला वन्यजीव ...

नन्हा पपी "राजा" ऊँचे टीले पर जा चढ़ा और बड़ी आश्चर्य मिश्रित नज़रों से दूर कहीं देखने लगा। छोटे छोटे पठारों और उबड़ खाबड़ धरती के बीच बसे गाँव का नज़ारा इन दिनों बड़ा ही लुभावना है। बसंत ऋतू प्रारंभ हुई है। नवपल्लव आने के पूर्व पतझड़ का दौर है। पलाश के पत्तों की रंगत बदल गई हैं, कुछ में कलियाँ निकल आई हैं तो कहीं कहीं फूल भी झाकने लगे हैं। नहरमें दौड़ते पानी ने फसलों का स्वास्थ्य सुदृढ़ कर दिया है । गेहूं की फसल बहार पर है बालियाँ पकने लगी है। बेसरम पर फूलों की बहार है। राधू ने कल्ली के इस पिल्लै को पाल रखा है जो लाल रंग की आभा लिए बड़े बड़े बालों वाला गबरू है। राधू ने इसका नाम प्यार से राजा रखा है । दो झोंपड़ों की बस्ती है जो खेत से सटाकर बनी है। टहनियों से बनी टाटीयों से जोड़कर बनाए कमरे गोबर और पीली मिटटी से लीपकर तैयार किए गए हैं जिन पर कवेलू डाले गए थे जो अब सोलर पेनल से ढक गए हैं । कल्ली अपने पिल्लों के साथ घुमाते घामते यहाँ से जा रही थी तभी राधू ने पहली बार राजा को देखा था और उसे दौड़कर उठा लाया था । कल्ली अब इधर दिखाई नहीं दे रही मगर "राजा " अब राधू की देखरेख में है । राधू तीसरी कक्षा का छत्र है और रोज़ सवेरे अपनी स्कुल जाता है जो घर से कोई आधा किलोमीटर दूरी पर है। आसमानी नीले रंग की कमीज़ लाल निक्कर सर्दी के दिनों के लिए लाल स्वेटर और पढाई का बस्ता स्कुल से ही मिला है। सुबह जब वह स्कुल जाता है तब "राजा" भी उसके साथ साथ स्कुल तक जाता है। दोनों किनारों पर लेंटाना की झाड़ियों से गुजरता यह रास्ता उसके घर के सामने से निकलता है जो अब पक्की सड़क है। राधू के घर के पास काफी हरियाली है। गाय, बैल, बकरे,बकरीऔर मुर्गे मुर्गियां इन्होने पाल रखी है । राधू के पिता हकरू जो नगजी का दूसरा बेटा है ने दसवीं तक पढाई कर रखी जबकि राधू की माँ दूसरी कक्षा तक स्कुल गई थी। आज से बीस बरस पहले राधू के दादाजी यानी नगजी ने घर के समीप स्थित खेती की इस जमीन को बड़ी कठिनाई से जोतने के लायक बनाया था। पैसे तो उनके पास थे नहीं तब वे मजदूरी करने शहर को जाया करते थे। बरसात के दिनों में मकई की फसल बारिश के भरोसे उगाकर वो दाडकी पर जाते थे। ६० रु रोज़ कमाकर अपनी जैसे तैसे आजीविका चलाया करते। हकरू ने पढ़ने में दिल लगाया तो उसकी किसी तरह ना टूटे इसका ध्यान भी उन्होंने रखा था। जब वह छठीं का छात्र था उस समयशहर में कहीं से सस्ती सायकल लाकर उन्होंने हकरू को ला दी थी। सुदूर आदिवासी अंचल में उस वक्त कोई साधन नहीं थे और झोंपड़े से शहर जाने के लिए करीब तीन किलोमीटर पैदल चलना होता था। हकरू को जब सायकल मिली तो उसका उत्साह बढ़ गया था । कच्ची गड़ारों पर वह पिता को बस जाने के लिए छोड़ आता। उसका बड़ा भी उससे पांच साल बड़ा था मकान छोटा जानकार उसने एक घर पास ही में बना लिया था और पास की जमीन पर अतिक्रमण कर खेती करने लगा था । हालांकि पिता की ही तरह उसे भी काम से घर लौटने पर जो समय मिलता उसी में बड़ी मेहनत कर उसने घर बनाया था । बेसरम की सुखी लकड़ियों की दिवार खड़ी कर उसने भी पिता ही की तरह गोबर से लीप कर यह मकान बनाया फिर एक दिन बैलगाड़ी में कवेलू लाकर उसने छत बनाई थी। बस ये दो ही मकान है जो पंचायत में "नगजी का रुंडा " के नाम से दर्ज है। झोंपड़ों के पास बना टीला खेत से बीनकर निकाले छोटे बड़े पत्थरों को इकट्ठा किए जाने से बना है। टीले पर खड़े होने से सारा उबड़ खाबड़ खेत एक साथ दिखाई देता है। मुरुम के इस पठारी इलाके में खेती कितनी कठनाई भरी होगी सहज अनुमान लगा सकते हैं। चिड़िया भगाने के लिए भी इसी टीले का इस्तेमाल होता है। यानी इस टीले की उम्र आज बीस बरस की हो चुकी है। आज अनास नदी पर बनाए गए बाँध से लिफ्ट इरिगेशन के जरिये निकाली नहर से खेती हो रही है। और इसने आर्थिक प्रगति के सोपान रचे हैं। हकरू अब पढ़ लिखकर वन रक्षक की सरकारी नौकरी में है । उसे नौकरी वहीँ मिली है जहां का वह रहने वाला है । धुल उडाती पहाड़ियों के बीच बसा यह गाँव आसपास के जंगल कट जाने के बाद अब कहीं जाकर प्रधानमन्त्री सड़क योजना की सड़क से जोड़ा गया है। सोलर लाईट की व्यवस्था दो बरस पहले हुई थी। हकरू आज आदिवासी मजदूर नहीं शासकीय सेवारत होकर वनवासी भूमि का हकदार कृषक भी है। टीले पर चढ़े "राजा" ने उतरकर घर के सामने की सड़क को क्रोस किया और झाड़ियों के बीच बने रास्ते पर दौड़ पडा फिर तुरंत ही वहां से लौटा तो वह घबराया जान पडा। राधू को याद आया की राजा टीले पर चढ़ा था फिर भागकर कहीं गया था तो उसने भी टीले पर चढ़कर देखा। टीले से उसे लगा कि कोई अजीब सा जानवर अपने शिकार को घसीटकर नीचे नाले की और जा रहा है। देखते ही देखते शिकार और शिकारी जानवर ओझल हो गए। राधू पास जाकर देखना चाहता था मन में बड़ी खलबली जो थी। मगर माँ की आवाज़ सुन वह भोजन को जा बैठा। भोजन कर उसे स्कूल जाना था। भोजन करते उसने माँ को बताया की एक जानवर किसी गाय जितने बड़े जानवर को घसीट कर नाले की दिशा में ले गया है उस पर काली सफ़ेद पट्टियां थी और पीठ पर बड़े बड़े बाल नज़र आते थे। माँ को शेर होने का अहसास हो गया उसने अपने ससुर नगजी को यह बात बताई तो उसने सामान्य बात की तरह नजरअंदाज कर दिया। हकरू आज रेंज ऑफिस पर तलब किया गया था सो वह वहां गया था। शाम को लौटने पर उसने यह समाचार सुना तो उसने दुसरे दिन वहां जाकर पता लगाने की बात कही। वायरलेस सेट पर उसने संपर्क करना चाहा जो कभी कभी चल पड़ता था मगर आज यह संभव न हो पाया था। सुबह एक बार पुनः कोशिश करने की सोच वह सो गया । सवेरे जब वह उठा तो घना अंधियारा था लगभग चार बजे के आस पास जो गाय दुहने और पशुओं को चारा खिलाने का वक्त आंका जाता है। घर से वह रात में भिगोए भूसे की तगारियां लेकर बैल और गाय के पास जा पहुंचा फिर पास के पेड़ से घांस उतारने लगा । उसका भाई ताड़ के पेड़ पर मटकियाँ लटकाने के लिए ऊपर चढ़ा था और अब कल बाँधी गई मटकियों को लेकर नीचे उतर रहा था । घर में जाकर हकरू ने पानी की बाल्टी में पानी लिया और गाय दुहने के पहले उसने बछड़े को गाय के पास छोड़ा बछड़े का मुह छुडाकर उसने थान धोए और अब दूध निकालने लगा। अंधियारा धीरे धीरे छंटने लगा था सूरज रजाई में दुबका सा बाहर निकला था। गुलाबी काली रंगत का रंग जैसे जैसे बदलता गया आसमान भी नीले रंग का नजर आने लगा । सूरज की आभा गुलाबी लाल नारगी होकर पीली हुई फिर सुनहरा अग्नि रंग चमकने लगा । पास दूर के पठार कोहरे के आगोश से निकलने लगे लाल मुरुम के ये पहाड़ जो कभी पलाश, सागौन, खैर, आंवला, नीम, जंगलजलेबी , अनार , करोंदे , बैर आदि से पटे पड़े थे अब वृक्ष विहीन खड़े थे। सुबह का उजियारा फैलता जा रहा था सुबह आठ बजे तापमान चौदह डिग्री था और सूरज जमीन पर झोंपड़ी की परछाई के साथ ३० अंश का कोण बना रहा था और अपनी मुंदी हुई आँखों को हौले हौले खोलने लगा था। हकरू ने हाथों में डंडा उठाया और बताई हुई नाले की दिशा में चलाना प्रारंभ किया तो राजा भी उसके साथ हो लिया। कभी आगे कभी पीछे चलते हुए उसने हकरू का साथ देना प्रारंभ कर दिया। अभी कोई डेढ़ सौ मीटर दूरी तय करने पर उसने बड़े से पंजों के निशान जमीन पर देखे। कुत्ते के पंजों जैसे निशान वहां थे उसने ठिठक कर भुरभुरी मिटटी पर बने निशानों को झाड़ियों से सुरक्षित किया वह अनुमान लगा रहा था वरघड़े या भेडिये का । सुदूर पहाड़ी अंचल में अब थोड़े ही जानवर शेष बचे हैं घोडारोज़ यानी नीलगाय अब वापस कभी कभार दिखाई देती है। बटेर, तीतर, कड़कनाथ जैसे पक्षी सियार लोमड़ी बिच्छु सांप सेहीगोह गोयरा और खरगोश यहाँ संसूचित थे। वरघड़ा के बारे में सुना तो था मगर वह दीखता कैसा है, कितना बड़ा होता है आदि नहीं जानता था आगे बढ़ने पर उसे जानवर घसीटे जाने के निशान दिखे जो लगभग गाय जितने बड़े होने का अनुमान दे रहे थे। वरघड़ा के बारे में उसने सुना था की भेड़ बकरियां और बंधे जानवर को वह खा जाता है। मरे जानवर भी उसे कईयों ने खाते देखा है। सहमे क़दमों से वह आगे बढ़ा तो उसने देखा की एक अध् खाई जानवर की लाश पड़ी है सिर पानी में डूबा है जबकि पीछे का हिस्सा और सीने की हड्डियां साफ़ हो चुकी हैं। नाले के किनारे ऊँची झाड़ियों से उसे डर लगने लगा तो डंडे को जमीन पर ठोक झाड़ियों पर डंडे के प्रहार किए और आगे बढ़ा। नीलगाय की लाश उसने महसूस की पोखर का पानी रक्तरंजित था। एक पैर नदारद था , अंतड़ियां बाहर पड़ी थी। गर्दन टूटी थी जिसमे से खून का रिसाव हुआ था । जो हिस्सा ऊपर की और था वह ही खाया जा चुका था। कीचड में उसे पग मार्क मिलाने की उम्मीद हुई। पगमार्क यहाँ पाकर वह बड़ा ही खुश हुआ। घर लौटकर उसने एक बार फिर वायरलेस खटखटाया मगर असफल रहा किसी से बात न हुई। रेंज कार्यालय तक वह अपनी मोटर सायकल से पहुंचा उन्हें सारी बात बताई फिर वहां से मंडल कार्यालय को सूचित कर वे प्लास्टर ऑफ़ पेरिस , एनीमल रेफरेंस बुक , कांच की स्लाईड , स्केच पेन , बटर पेपर , पानी की बोतल , मग आदि सामान लेकर नाले की ओर जाने को निकले । हकरू के घर गाड़ियां खड़ी कर कच्चे रास्ते पर फिर आगे बढे । निशानों पर हौले से कांच जमाकर पगमार्क ट्रेस किए । फिर मग में प्लास्टर ऑफ़ पेरिस घोलकर मिटटी पर उडेला ओर निशानों को प्लास्टर पर लेने की कोशिश की मगर ठीक से निशान नहीं आने से वे निराश हो गए । लाश की और आगे बढे तो वहां कुत्ते आ गए थे जो लाश के साथ खींचतान कर आपस में लड़ झगड़ रहे थे । कीचड पर निशान उन्हें सुरक्षित मिला इसमे प्लास्टर का घोल डालना और सुखाना मुश्किल था सो सूखे पावडर छिड़क कर उन्होंने पगमार्क का प्रिंट तैयार किया मगर प्लास्टर को सूखने में देर लगी । अब घर के बाहर जानवरों को खतरा था सो जंगल की कंटीली झाड़ियों से बाड़ बनाई गई इसमें भी बची खुची झाड़ियों का उपयोग हुआ । पालतू जानवर जो बचाने थे। वरघड़ा की जरक, लकड़बग्घे यानी इन्डियन स्ट्राइप्ड हाईना के रूप में पहचान राधू ने एनिमल्स रेफरेंस बुक की मदद से की। राजा ही था जो आज वनविभाग की सूचि में एक नए वन्य पशु को जुड़वा सका वह भी ऐसे क्षेत्र और समय में जबकि काले हिरण,चौसिंगे,तेंदुए और बार्किंग डीयर के लिए पचास बरस पहले कभी समृद्ध रहे क्षेत्र में प्रगति की अंधी आंधी के चलते बरसों से नहीं दिखा था।

अस्पताल का सांप?

सरकारी अस्पताल का परिसर जीर्ण शीर्ण भवनों का स्थान था। तीस बरस से पहले बने इस अस्पताल के भवन का भी बुरा हाल था। पतरे की छत पर बिछे खपरैल टूट गए थे और अब आधे अधूरे ही बचे थे। पतरे भी सड़ गए थे। सपोर्ट के लिए लगा लकड़ी का बीम तड़क गया था । दरवाजों की हालत भी टूटी फूटी हो चली थी। पलस्तर भी उखड गया था।अस्पताल में चिकित्सकों के दो कमरे थे। एक कमरा दवाई वितरण के लिए कंपाउडर के सुपुर्द था । मरहम पट्टी कक्ष और शस्त्रक्रिया कक्ष की व्यवस्था दी गई थी। जैसे जैसे समय बीता प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में सुविधाए बढ़ी। बिस्तर , एम्बुलेंस ,प्रयोगशाला के अलावा प्रसूतिगृह का निर्माण भी हुआ।अमूमन अस्पतालों के नजदीक नई आबादी विस्तारित हुई और सड़क के आसपास आम इमली के पेड़ भरपूर थे। अस्पताल की पिछली दीवार के समीप एक भयावह ईमली का पेड़ था। भयावह इसलिए कि उसमे अजीब सी खोह और आकृतियाँ निर्मित हो आई थी। एक कोटर में उल्लुओं ने बसेरा कर लिया था। दिन के समय में भी आसपास खडी मेहंदी की बागड़ झाड़ियों से भरा उंचा सा टीला और वहां का डरावना एहसास सहसा किसी को जाने से रोक दिया करता था सो यह स्थान निर्जन बना रहा।अस्पताल में प्रसूतिगृह क्या बना यहाँ सभी तरह के काम होने लगे। कुछ घरों में इसने जहां घरों के चिराग रोशन किए तो कई अवांछित अवैध संताने गिराने का धंधा भी फलाफूला। खासतौर पर कन्याभ्रूण हटाए जाने का। अस्पताल में महिला चिकित्सक की नियुक्ति तो हुई मगर सिस्टर मेरिंडा की यहाँ रौबदारी रही। होती भी क्यों न? सभी गाँव वालों के अच्छे बुरे की मदद इसी से मिलती जो थी।ईमली का यह पेड़ और इसके नजदीक का यह वीराना अनचाहे गर्भ की कब्रगाह बन गया बरसों तक इस पेड़ के नीचे कई भ्रूण दफ़न होते रहे। दिन में कौवे और रात में चमगादड़ यहाँ डेरा डाले रहते।अस्पताल की इस बिल्डिंग को पूरी तरह तोड़कर नया भवन बनाए जाने के लिए शासन ने पैसे मुहैय्या करवाए। ठेकेदारों से इसे तोड़े और बनाए जाने के टेंडरों की विज्ञप्ति प्रसारित हुई।अस्पताल को जब तक नया भवन नहीं बन जाता पंचायत भवन में स्थानांतरित किए जाने की व्यवस्था दी गई। अब अस्पताल को खाली कराया जाना था। सबसे पहले स्टोर में जमा सामान हटाने का काम किया जाने की शुरुआत हुई। कंपाउडर, टेक्नीशियन अपने काम में संलग्न थे और पीछे का कमरा जो कई सालों से बंद पडा था खोला जाकर उसमे रखे सामान की लिस्ट बनानी थी फिर उसे कहीं अन्यत्र रखवाया जाना था। दरवाज़ा खोलने के सारे प्रयास असफल हो गए तो प्रभारी चिकित्सक को बताया गया , उन्होंने कहा की जब भवन ही तोड़ देना है तो दरवाज़े का क्या?..... तोड़ डालो दरवाज़े को। अस्पताल में कभी एक्स रे के लिए बनाया मगर कभी उपयोग में न लाया गया कमरा बड़ा ही अंधियारा था। यहाँ लाईट की व्यवस्था भी नहीं दी गई थी। इसकी पिछली दीवार पर एक्जास्ट के लिए गोल खिड़कीनुमा निर्माण भी था जो इमली की बढ़ आई डाली से सट आया था। कमरा अनुपयोगी रहा था और बिजली प्रकाश की व्यवस्था न होने से दिन में भी इस्तेमाल नहीं हो सकता था।दरवाजे को तोड़े जाने का निर्णय सुनकर सभी कमरे के सामने इकट्ठे हो गए । दरवाज़े को खींचा धकेला गया । किसी ने लकड़ी फंसा कर तोड़ डालने की बात कही। रूटीन के काम करने वाले शासकीय कर्मचारी अपने काम से काम रखते हैं सो दरवाज़ा तोड़ने के लिए बाहर से मजदूर बुलाया जाना तय हुआ। हरिया ने दरवाज़ा तोड़ने के लिए सौ रुपये मांगे तो भावताव हुआ पैसे कहाँ से आयेंगे इस पर चर्चा हुई। जैसे तैसे वह अस्सी रुपये में काम करने को तैयार हुआ। गुस्से में हरिया ने एक पत्थर उठाया और दरवाज़े पर दे मारा । पत्थर से दरवाज़ा टुटा तो नहीं मगर उसमे एक छेद जैसा पड़ गया । पत्थर उठाने मे हरिया को लगा की कमरे मे से सांप जैसा बाहर आया है तो वह भागा । उसे देख दुसरे भी भागे । कुछ समझ मे nahi aayaa की हुआ क्या है ? हांफते हुए हरिया ने वहां सांप होने की बात कही और वो वहां जाने को अब तैयार भी नहीं था। कह रहा था पैसे गए भाड़ में दूसरी जगह दाडकी कर कमा लूंगा अब वहां अँधेरे में तो बिलकुल ही नहीं जाऊँगा। एक तो अस्पताल डरावना ऊपर से भूतहा कमरा। न बाबा ना मुझे नहीं करना काम। अब सांप के होने की बात से भयभीत वहां जाने को तैयार नहीं था । किसी ने सुझाया की दीपक लगाओ , पूजा करो अगरबत्ती लगाओ तो शायद नाग देवता चले जाए ऐसे कहाँ कहाँ और कब कब हुआ की बाते भी हुई । अब अगरबत्ती दीपक ले नाग देवता से वहां से चले जाने की गुहार भी हुई । मगर वह मोटासा सांप तस से मास ना हुआ अब सब अपनी खैरियत के नाम पर पैसा खर्चने को तैयार हो गए । कन्हैया जो हरिजन से ड्रेसर बन गया था ने सबसे पैसे ऐंठे और सायकल उठाकर किसी सांप पकड़ने वाले को लेने चला गया । बाहर मरीज़ थे और भीतर सांप । मरीजों का जैसे तैसे इलाज की व्यवस्था देने के लिए नीम के नीचे टेबल लगाकर व्यवस्था की गई। सांप बाहर निकलते वक्त कहीं भी गुस जो सकता था । यह चर्चा भी थी की सांप आया कहाँ से होगा । इतना मोटा सांप कभी किसी ने पहले देखा भी जो ना था । सांप कैसा भी हो जहरीला हो न हो डरावना तो होता ही है। कन्हैया अपनाने पीछे सपेरे को बैठा लाया था और पैसे की बात किसी और से न करने की हिदायत भी दे कर ही लाया । सपेरे ने भीतर जाकर देखा फिर कन्हैया से मोल भाव करने लगा जैसे तैसे सौदा चार सौ रुपये में तय हुआ । नाग देवता ने बचे पैसे उसे बक्सिश में दे दी थे तो वह खुश हो गया ।सपेरे ने झोले में से चिमटा निकाला और लकड़ी लेकर वह जा घुसा भीतर । उसके भीतर घुसते ही सब के सब पीछे हो लिए की वह सांप कैसे पकड़ता है। सपेरे ने सांप को देखा तो वो वहीँ था । लकड़ी से हिलाया तो वह फुदका । सपेरा डर गया और पीछे आ गया । कहने लगा साब बड़ा खतनाक जनावर है उछलता भी है। चिमटे से ही पकड़ के काबू करना पडेगा । वह फिर अँधेरे में घुसा और चिमटा लेकर झपट पडा मगर सांप चिमटे से छुट गया जानकर वह वहीँ धडाम से जा गिरा । और सांप जो सांप था ही नहीं वरन मोटी मोटी आँखों वाला मोटा सा एक कबरबिज्जू था जो तेजी से निकल कर खड़े लोगों के बीच से निकला । लोग इस अप्रत्याशित घटना से बिदके घबरा से गए और उनमे से कुछ गिर पड़े । डाक्टर साहब को टेबल आ लगी । कन्हैय्या सकते में था जैसे जैसे बात समझ में आने लगी और सपेरे के गिर जाने की बात पता चली तो सारे अस्पताल में हंसी की फुहारे चल पड़ी । आज भी सारा गाँव सपेरे को चिमटा दिखा चिढाता है और जब कभी सांप की खबर सुनाई पड़ती है कबर बिज्जू याद आता है जो अस्पताल में अवैध और कन्या भ्रूण खाने को रहने लगा था ।