Saturday, June 4, 2011

ट्राफिक सिग्नल और ऐश ट्रे भी तो हो सकता है मेरा घरोंदा











अब देखें घोंसले कहाँ कहाँ .....








सावधान बदल रही है धरती........

जैव विविधता जैसा की शब्दों में निहित है । छोटे से लगाकर जीवन क्रम का हर बिंदु इसमें समाहित है । माइक्रोओर्गानिज्म से लगाकर व्हेल जैसे महाकाय जीव तक को जैवविविधता ने समेटा है तो वनस्पतियों का क्रम भी, जीवन के अनिवार्य तत्व इसमें शामिल ही है। जीवन के वे तमाम अंश जिनमे सुन्दरता, क्रूरता, विभत्सता, आश्चर्य, डर, संगीत का नवरस और मुस्कान सिमटी है तो वह प्रकृति का ही प्रांगन है जहां विभिन्न जीवजंतु अपना जीवनक्रम पूरा करते दीखते है। मंद स्वच्छंद हवा जब थम जाती है तब उसकी अनिवार्यता का अंश महसूस होता है। यह हवा जब अंधड़, झंझावत, बवंडर और तूफ़ान का रूप धर लेती है तब आतंक की कहानी लिख डालती है। पानी के साथ भी यही कुछ होता है तो धरती का कम्पित होना, भूस्खलन, ज्वालामुखी की विकराल भयावहता हमसे छुपी नहीं है। बावजूद इस सबके धरती पर जीवन बना हुआ है। समंदर की गहराई तक में जीव खोजे गए है। ज्वालामुखीय चट्टानों के ठंडा न हो पाने के बावजूद वहां धरती पर जीवन बना हुआ है । समंदर के भीतर की अतल गहराईयों तक में जीव खोजे गए हैं। ज्वालामुखीय लावे के पूर्ण ठन्डे होने के पहले वनस्पति और जीवन चक्र वहां देखने को मिला है। विकटतम परिस्थितियों में भी जीवन धरती पर बरसो से छाया है इन सबका कारण हमारे आध्यात्म का पञ्च महाभूत जिनमे अग्नि, जल, वायु, मिटटी(धरती), आकाश(यूनिवर्स) शामिल है मालूम होता है।प्राकृतिक व्यवस्था का यह चक्र दुनिया के सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी यानी मानव के द्वारा ही टूटा है। आज जब हम जैव विविधता दिवस मनाते हैं तब गौरतलब हो जाता है की धरती और उसके चक्र को नुकसान पहुंचा तो कैसे? जहां तक उल्का पिंड से नुकसान होने की बात है तो यह कोई ६५० करोड़ वर्ष पहले घटित होना अनुमानित है। मगर आश्चर्य की बात है की मगरमच्छ और गेंडे आज भी मौजूद हैं और देखे जाते है। बड़ी छिपकलियों में कमोडो ड्रेगन है तो बड़े एनाकोंडा जैसे सर्प भी। काक्रोच को सदियों पुराना जीव माना जाता है। कुछेक जीव अपना सम्पूर्ण जीवन धरती के भीतर ही गुजार देते हैं। तो कई पशु परिंदे है जो हमारे आस पास हमारे सहवासी होकर जी रहे हैं। जंगल में इंसान ने वन्य पशुओं के साथ जीना सीखा और अब तक की ज्ञात अवधारणा है की अनेको कबीलाईयों ने प्रकृति के प्रांगन में अपना अस्तित्व बनाए रखा। आधुनिक कलपुर्जों का इस्तेमाल होना बहुत पुरानी बाते निश्चित नहीं हो सकती मगर पशु आदि साधनों का इस्तेमाल कृष्ण युग से चर्चा में आया है। आज के जो भौतिकी और रसायन के आविष्कार हैं उन्होंने मनुष्य को परमाण्विक रूप से सशक्त बनाया और जीवन को सुविधा पूर्ण बनाया है। सत्ता का सिलसिला देखें और इतिहास को टटोलें तो बारम्बार देखने में आता है की जीत या फतह करने के लिए खाद्यान्न नष्ट कर देना, पानी में जहर दाल देना शत्रु को कमजोर करने की तह में रहा। भारत आज बलशाली है तो इसकी तह में प्राकृतिक संसाधन है। आज इन प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तेजी से हो रहा है जो आगे जाकर हमें कमजोर बना सकता है, हमें अपनी मान्यता बदलना पड़ेगी और इन तत्वों का सरक्षण करना पड़ेगा। पानी, हवा, जमीन का दूषण जारी है तो खाद्यान्न की प्रकृति पर प्रहार होने लगे हैं इसे समझने की जरूरत है। कृषि उपयोगी भूमि का शहरी करण औद्योगिकीकरण लगातार जारी है ही।अब आस पास की बात करें सारी पहाड़ियां बंजर है। बारिश का रोका जाने वाला पानी सिंचाई में बेतहाशा इस्तेमाल किया जा रहा है शहरी आबादी द्वारा नलों से प्राप्त पेयजल का मात्र 4% इस्तेमाल पीने के तथा भोजन बनाए में प्रयुक्त हो रहा जबकि 90 % पानी प्रदूषित होता है। अब थोड़ी जाग्रति आई है जो पक्षियों के पीने लिए पानी रखा जाने लगा है। जंगल के प्राकृतिक स्त्रोतों की देखभाल की जरूरत है जो वन्य प्राणियों को भीषण गर्मी के दौर तक पेयजल उपलब्ध करा सके और कुछ चिन्हित स्थानों पर ट्रेवर टेंक बनाए जाने की आवश्यकता भी है।भूगोल के आंकड़े देखें आज ट्रोपोस्फियर, स्ट्रेटोस्फियर तथा आयोनोस्फियर में कितनी तबदीली वायुदाब में हो चुकी है देखना पड़ेगा, वातावरण में गैस के कम्पोजीशन की थाह लेने की जरूरत भी है। सिर्फ यह कह देना की ओजोन गैस की परत में क्षति हुई है पर्याप्त नहीं। सूरज पर सुनामी का मामला नासा ने जाहिर किया है उनके मुताबिक़ आज मानसून का पैटर्न बदल चुका है।सी लेवल को भी पुनः अंकित किए जाने की जरूरत हो क्योंकि लगातार सतह पर तबदीली जारी है। सिस्मिक वेव लगातार बढती दिख रही है तो ज्वालामुखी फिर से फटने लगे है। कल यूरोप में ज्वालामुखी फटने की बात सुनी गई और यही क्षेत्र लार्ज हेड्रोंन कोलाईडर का भी है। हमने उत्तरी ध्रुव के खिसकने की बात को कितना गंभीरता से लिया है ? मायक्रोबायोलोजिकल, मेकेनिकल, केमिकल वेदरिंग के मृदा तत्वों में प्रभाव तलाशने की आवश्कता बन आई है मगर भूगर्भशास्त्रीयो की कितनी सलाह ली जा रही है हम नहीं जानते । आज खनिजों का जितना दोहन किया जा रहा है उसकी गर्त में हमारी उम्र में जो लूट सकें उतना लूट लेने का काम होने लगा है। मिटटी निर्माण की मायक्रो बायोलोजिकल एक्टिविट पर ध्यान नहीं है। जमीन के भीतर बाहर पानी का सिस्टम बिगड़टा जा रहा है पर किसका ध्यान है? ग्लेशियर पिघल कर ३.७५ कीलोमीटर पीछे धकेले जा चुके हैं । कार्बन का इमिशन प्रतिदिन बढ़ चुका है। खड़े वाहन में जब जब भी जाकर बैठा जाना होता है तब तब भीतर भट्टी की तरह गर्म वायु का अहसास होता है यह वायु भी वातावरण में घुल जाती है जो तापमान बढ़ाती है मगर चिंता किसे? वहां चलने के बाद सिर्फ गैस ही तो नहीं जो तापमान प्रभावित करे, उसके गर्म हुए इंजन की उष्णता का प्रभाव भी तो पड़ता ही है जिसे शामिल किए जाने की जरूरत है । मानसून और बादलों का चक्र प्रभावित हुआ है सिर्फ इतनी चिंता जाता लेना काफी है क्या?सारे वातावरण की चिंता कर भी लें मगर वैज्ञानिक क्रान्ति को जीवन का हिस्सा बना चूका समाज कब जागेगा ? शायद व्यक्ति का जीवन कभी परिवर्तित होने की संभावना नहीं है और हमारी चिंता बेवजह है । हमें जो होरहा है अच्छा है की तर्ज पर जीना होगा यही हमारी बेबसी है ।

Wednesday, May 25, 2011

जीवविज्ञान या जीवन बनाम विज्ञान?

जंगल हो गया सूना

चिड़िया की बात बेमानी है
हमें फ़िक्र अब किसकी ?
बिकने लगा पानी है
सभी जानते बात यह की
आविष्कारो की ये शैतानी है
मना रहे जैव संरक्षण दिवस क्यों ?
हमें तो भौतिक समृद्धि लानी है
बढ़ गया जेब खर्च का भार
हावी हो चला भ्रष्टाचार
हाथी तोड़ने लगे घरों को
शेर चीते की चली राह गाँव शहर को
कल भालू ने घर खरीदा है
मोहल्ले में नहीं उसके मधुमक्खियों का डेरा है
कौवा खरीदता अब बोतलबंद पानी है ?
गाय घोड़े की भी तो ट्रक ही सवारी है
देखो जंगल का नहीं कोई रखवाला है
विकास ही जो विनाश का कारण बन आया है
कोई कहता जंगल काट खेत बनाउंगा
जब तक जंगल न हटे भेड़ बकरियां खूब चराऊंगा
वो कहता हिरन से मेरा क्या वास्ता
दूजे को चाहिए प्लेट में बतौर नाश्ता
धन्य हो तुम अहिंसावादी
खेत हटा उद्योग कालोनी जो बसा दी
पूँजीवाद का खेल निराला है
बूहुहु कर रो रहा जंगल सारा है
पानी पानी कर दौड़ रहा खरगोश
कछुआ पडा है कीचड की चाह तक में बेहोश
चोंच खुली रख दिख रही चिड़िया प्यासी
कोई बचाने जाए, उसकी उडाओ हांसी
अब बची किसी की खैर कहाँ
दूर ग्रहों पर खोज रहे अब नया जहां
काट रहे डाली वह, जिस पर ख़ुद बैठे हैं
कर रहे विज्ञान का भरोसा जो आँखें तरेरे है
क्या ढूंढें जायेंगे मछली , मेंढक , स्नेल्स अब जहरीले पानी में ?
जैव विविधता दिवस मना रहे बैठे हैं हम हैरानी में

Tuesday, May 3, 2011

पानी के यक्ष , नाग .............??

"जल ही जीवन है"। "जल ही अमृत है"। "पानी बचाईये - जीवन बचाईये "। जैसे कई स्लोगन्स से हमारा हर रोज़ वास्ता पड़ता है । एक दिन सड़क पर चलते एक अजीब नज़ारे से सामना हुआ। पानी से भरा एक टैंकर जिस पर "पानी का मोल जानिये , हर बूंद को बचाईये" लिखा था, धीमी रफ़्तार से भीड़भाड़ भरी सड़क से गुजर रहा था। पानी का वाल्व खुला था और पानी सड़क पर बह रहा था। एक युवक इस टैंकर के पीछे दौड़ते हुए बाल्टी में पानी भरने लगा।

चाय की चुस्कियां लेते लोग उसे देख रहे थे। उसके इस कार्य को देख वे हंसने लगे। जब वह तुरंत ही पानी ले वापस लौटा तो उन्होंने उससे पूछा : "ये क्या तरीका है पानी भरने का? "

युवक ने जवाब दिया : "गर्मी के दिन हैं। पानी की मारामारी है। पर अपनी किस्मत है के ये पानी के टैंकर दिनभर सामने से निकलते रहते हैं। तो.......अपन को कहीं भटकना नहीं पड़ता। फिर ढुलते इस पानी को बचाने का मौका भी मिल ही जाता है न।"

"तो.... जितने भी टैंकर यहाँ से गुजरते हैं सभी से पानी बहता रहता है क्या?" किसी ने पूछा। कभी कभी नहीं भी गिरता युवक ने कहा। " अच्छा है भाई " आपस में निगाहें सुकून महसूस करते मगर युवक अपनी झोंक में कहता गया " तब उसका वाल्व खोल कर भरte हैं?

उन चाय पी रहे लोगो को पानी का मूल्य अब समझ में आने लगा तो उन्होंने पूछा कि ऐसे कितना पानी भर लेते हो दिन भर में?

दुकानदार भी उनकी बाते सुन रहा था । युवक पर जोर से चीखा और बोला "दिन भर बातें ही करेगा क्या? ये चाय उधर पहुंचा जल्दी से चल...."। युवक ने फुर्ती से चाय पहुंचाते हुए जवाब दिया : " अरे साब ! पानी की पूर्ती हो जाती है हमारी। फिर सवेरे नल भी तो थोडा बहुत पानी पिचक ही जाता है न।"

वह वाल्व तुमने बंद क्यों नहीं कर दिया ? कोई बोला। "अरे साहब उसे छेड़ नहीं सकते आपको पता नहीं हाथ लगाते ही वो फूट पड़ता है।"

नगर निगमों , पालिकाओं द्वारा गर्मी के दिनों में पानी की आपूर्ति के लिए टैंकर किराए पर चलाए जाते हैं ।
अभी बात चल ही रही थी की युवक ने इशारा करते हुए बताया कि वो टैंकर इन सज्जन का है, बस फिर क्या था। सभी लोग टैंकर मालिक को आड़े हाथों लेने की तैयारी करने लगे। टैंकर मालिक अपनी मोटरसायकल से आकर चाय पीने रुका था और दुकान पर आता देख युवक ने उसका परिचय दे दिया था। अगले टैंकर को आता देख वह बाल्टी ले कर अपनी तैयारी में लगा था ।
"क्यों साहब? पानी का टैंकर आपके पास भी तो है न?" सवाल से चोंककर लगभग सकपकाते हुए उसने जवाब दिया "हां" किन्तु वह अभी नगरनिगम में अनुबंधित है।" शादी ब्याह के मौसम में कहीं यह प्रश्न न पूछा गया हो इसके पूर्वाग्रह से प्रेरित उसका उत्तर था।
"तो फिर आप वाल्व ठीक नहीं करा सकते क्या?" किसी ने लट्ठ ठोका
"अरे साहब! अभी आप जानते नहीं हो" उसने अपनी जेब टटोलकर कागज़ निकाले और आगे करते हुए बताया कि"अब तक दस वाल्व इस सीज़न में बदलवा चूका हूँ लो ये बिल देख लो। पर लोग भी न पानी का मोल नहीं करते, उनको तो सिर्फ अपनी पड़ी रहती है। टैंकर के पहुंचाते ही चारों तरफ से टूट पड़ते हैं, अपनी जल्दी में नुकसान की कोई परवाह ही नहीं है उनको। कितना नुकसान पानी और पैसे का होता है....हमारी सेवा को कोई क्या समझे।"
पानी के संवाद कि चटखारेदार चर्चा मुझ तक पहुंची। किसी ने बताया कि गए साल २०१० में महाकाल नगरी उज्जैन में २१ दिनों के अंतराल के बाद नक् से पेयजल पहुंचा था। तब उन दिनों वे अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ गए थे। पानी का टैंकर आया तो कोई ऊपर जा चढ़ा, किसी ने वाल्व पर अधिकार जमा लिया, किसी ने टैंक में पाईप डाल कर सायफन से पानी लेना चालू कर दिया। उन्होंने भी ऊपर चढ़ कर बाल्टी से पानी भरना चालु किया और अपने मेजबान महोदय कि सहायता करना शुरू की। पानी की भरी बाल्टी उन्होंने नीचे खड़े पडोसी को क्या थमाई वो पानी ही ले उड़े। उनकी समझ में बात आई तो एतराज़ जताते हुए उन्होंने पूछा "यह क्या वो बाल्टी मैंने अपने लिए भरी थी आप कैसे ले गए? उन्होंने हँसते हुए जवाब दिया "तो क्या हुआ हम भी तो आप ही के है न?"
बस फिर क्या था अपने टावेल और कपडे ले वे उनके घर जा धमके। अब पडोसी जी का सर चढ़ गया कहने लगे "जानते नहीं पिछले पंद्रह दिनों से पानी नल में आ नहीं रहा और आप तो हमारे पडोसी के मेहमान हो हमारे यहाँ स्नान क्यों?"
"भाई अभी थोड़ी देर पहले आप ही ने कहा था न की हम भी आप ही के है? तो फिर भला अब एतराज़ क्यों?" जैसे तैसे आधी बाल्टी पानी में स्नान और कपडे धोने का काम करना पडा।
अब कल की बात है, महापौर जी को जल संवाद के लिए अतिथि आमंत्रित किया गया उन्होंने अपने अनुभव सुनाए। सुबह ६ बजे उठना पड़ता है और देर रात तक पानी के लिए लोग सोने नहीं देते। सुबह दौरे पर निकला तो देखा की एक महिला ने २०० लीटर पानी का ड्रम जो पानी से लगभग आधा भरा था ज़मीन पर धकेल दिया मैंने पूछा "माई ! ये क्या किया? इतना पानी वैसे ही नाली में उड़ेल दिया? क्यों?" तो जवाब मिला "नया पानी आ गया है तो जूने पानी का क्या?" अब समझने की बारी थी नए और पुराने पानी के बारे में।
दूसरा दृष्य और भी मजेदार था भैंस को नल में मोटर लगाकर पानी खींच नहलाया जा रहा था। उसे जब कहा की "पानी का संकट है गर्मी के दिनों में और तुम्हे कोई परवाह ही नहीं। ये क्या कर रहे हो।" तो जवाब मिला : "ये क्या तुम्हारे पिताजी का पानी है? पैसे भरता हूँ निगम को, और तुम हो कौन मुझे कहने वाले?" जब किसी ने बताया कि ये महापौर हैं तो शर्म कर उसने आधा घंटा कम नहलाया भैंसों को उस दिन।
मेरे एक मित्र हैं किसी कारण उनकी दाढ़ी बढ़ आई , पर्यावरण पत्रिका के सम्पादक हैं सो दाढ़ी की महिमा जल बचाने में जताने लगे। यह तो ठहरा मैं तो मैंने पूछ ही लिया :" दाढ़ी को नहाते वक्त साबुन तो नहीं लगाते हो न?" वे झेंप गए की पानी का खर्च गिना जाने लगा है।
अब सवाल है क्या करें? क्या न करें? मुझे याद आया महाभारत काल का पानी का यक्ष जो पांडवों से सवाल करता रहा और आखिर में युधिष्ठिर के जवाबों से संतुष्ट हुआ था। लेकिन आज तो पानी नित नए यक्ष, नाग और किन्नर पैदा हो रहे हैं। जबकि जल तो स्वयं ही वरुण देव है ही।
आपको बता देता हूँ यक्ष वे हैं जो जो पानी का बेतरतीब इस्तेमाल करते हैं और आपके समक्ष ढीठ सवाल खड़े करते रहते हैं, आपकी खिल्ली उड़ाते हैं, व्यवस्था पर कटाक्ष करते हैं। नाग वे है जो पानी को अपनी कुंडली में व्यवसाय की खातिर जकडे बैठे हैं, नित नए तरीके पानी बेचने के ढूँढते रहते हैं और पैसे के घमंड से फुफकारते रहते हैं। अब रहे किन्नर तो उन्हें बताने की जरूरत है क्या? समझ ही लो ......हाँ।

Thursday, April 21, 2011

it could be good news for palpur kuno

indian

african
indoafrican????

African lions probably 2 distinct species

18/04/2011 20:08:३९


April 2011: There is a remarkable difference between the lions of west and central Africa compared to those in the east and south of the continent, according to new research.The study suggests that lions from west and central Africa are genetically different from lions in east and southern Africa. The researchers analysed a region on the mitochondrial DNA of lions from across Africa and India, including sequences from extinct lions such as the Atlas lions in Morocco.Surprisingly, lions from West and Central Africa seemed to be more related to lions from the Asiatic subspecies than to their counterparts in East and Southern Africa. Previous research has already suggested that lions in West and Central Africa are smaller in size and weight, have smaller manes, live in smaller groups, eat smaller prey and may also differ in the shape of their skull, compared to their counterparts in east and southern Africa. However, this research was not backed by conclusive scientific evidence. The present research findings show that the difference is also reflected in the genetic makeup of the lions.The distinction between lions from the two areas of Africa can partially be explained by the location of natural structures that may form barriers for lion dispersal. These structures include the Central African rainforest and the Rift Valley, which stretches from Ethiopia to Tanzania and from the Democratic Republic of Congo to Mozambique.Another aspect explaining the unique genetic position of the West and Central African lion is the climatological history of this part of the continent.It is hypothesised that a local extinction occurred, following periods of severe drought 18,000-40,000 years ago. During this period, lions continuously ranged deep into Asia and it is likely that conditions in the Middle East were still sufficiently favourable to sustain lion populations. The data suggests that West and Central Africa was recolonised by lions from areas close to India, which explains the close genetic relationship between lions from these two areas.

Saturday, April 2, 2011

आवेदन

प्रति,


कलेक्टर महोदय


जिला रतलाम (म.प्र।)


विषय : शिवगढ़ रोड केदारेश्वर सौन्दर्यीकरण एवं नदी गहरीकरण के सम्बन्ध मे।


महोदय,


रतलाम जिले के महत्वपूर्ण पर्यावरण पर्यटन स्थल शिवगढ़ रोड स्थित केदारेश्वर का सौन्दर्यीकरण प्राकृतिक समृद्धि के माध्यम से किया जा सकता है। ऊपर से आ रहे तालाब के गहरीकरण के साथ साथ बह कर आ रही नदी को झरने के मुहाने तक गहरा किया जाकर आस पास मे वन विभाग के maadhyam से झाडीनुमा फूलदार पौधों तथा कम पानी मे चलने वाले वृक्षों के रोपण की योजना के जरिये सुन्दरता मे अभिवृद्धि की जा सकती है।


बर्ड्स वाचिंग ग्रुप द्वारा यहाँ गार्डेन चेयर्स लगाईं जाकर सुविधा वृद्धि की गई है । आपसे निवेदन है की उपरोक्त विषय मे मार्ग प्रशस्त करने का कष्ट करें।


धन्यवाद !


राजेश घोटीकर


संस्थापक बर्ड्स वाचिंग ग्रुप


मो: 9827340835

Thursday, March 10, 2011

मादा अबलक घायल मिली


बिजली के तारों से टकराकर फिमेल पोचार्ड ग्रुप सदस्य भगत सिंह सांखला के घर जा गिरी । उसका इलाज करवाने के बाद परिधि ने उसकी देखरेख के लिए घर पर ही रख लिया है । वह कहती है की इलाज के बाद जब तक वह उड़ने के लायक नहीं हो जाती उसकी देखभाल वह खुद करेगी। हालांकि मादा अबलक के शरीर से आने वाली गंध से वह प्रभावित है।
चिकित्सकों के अनुसार इलाज से यह पक्षी ठीक होने की स्थिति मे है मगर उसे खाना खिलाने के तमाम प्रयास करने के बावजूद वह कुछ खा नहीं रही है।

Friday, February 18, 2011

एक बार फिर मिला वन्यजीव ...

नन्हा पपी "राजा" ऊँचे टीले पर जा चढ़ा और बड़ी आश्चर्य मिश्रित नज़रों से दूर कहीं देखने लगा। छोटे छोटे पठारों और उबड़ खाबड़ धरती के बीच बसे गाँव का नज़ारा इन दिनों बड़ा ही लुभावना है। बसंत ऋतू प्रारंभ हुई है। नवपल्लव आने के पूर्व पतझड़ का दौर है। पलाश के पत्तों की रंगत बदल गई हैं, कुछ में कलियाँ निकल आई हैं तो कहीं कहीं फूल भी झाकने लगे हैं। नहरमें दौड़ते पानी ने फसलों का स्वास्थ्य सुदृढ़ कर दिया है । गेहूं की फसल बहार पर है बालियाँ पकने लगी है। बेसरम पर फूलों की बहार है। राधू ने कल्ली के इस पिल्लै को पाल रखा है जो लाल रंग की आभा लिए बड़े बड़े बालों वाला गबरू है। राधू ने इसका नाम प्यार से राजा रखा है । दो झोंपड़ों की बस्ती है जो खेत से सटाकर बनी है। टहनियों से बनी टाटीयों से जोड़कर बनाए कमरे गोबर और पीली मिटटी से लीपकर तैयार किए गए हैं जिन पर कवेलू डाले गए थे जो अब सोलर पेनल से ढक गए हैं । कल्ली अपने पिल्लों के साथ घुमाते घामते यहाँ से जा रही थी तभी राधू ने पहली बार राजा को देखा था और उसे दौड़कर उठा लाया था । कल्ली अब इधर दिखाई नहीं दे रही मगर "राजा " अब राधू की देखरेख में है । राधू तीसरी कक्षा का छत्र है और रोज़ सवेरे अपनी स्कुल जाता है जो घर से कोई आधा किलोमीटर दूरी पर है। आसमानी नीले रंग की कमीज़ लाल निक्कर सर्दी के दिनों के लिए लाल स्वेटर और पढाई का बस्ता स्कुल से ही मिला है। सुबह जब वह स्कुल जाता है तब "राजा" भी उसके साथ साथ स्कुल तक जाता है। दोनों किनारों पर लेंटाना की झाड़ियों से गुजरता यह रास्ता उसके घर के सामने से निकलता है जो अब पक्की सड़क है। राधू के घर के पास काफी हरियाली है। गाय, बैल, बकरे,बकरीऔर मुर्गे मुर्गियां इन्होने पाल रखी है । राधू के पिता हकरू जो नगजी का दूसरा बेटा है ने दसवीं तक पढाई कर रखी जबकि राधू की माँ दूसरी कक्षा तक स्कुल गई थी। आज से बीस बरस पहले राधू के दादाजी यानी नगजी ने घर के समीप स्थित खेती की इस जमीन को बड़ी कठिनाई से जोतने के लायक बनाया था। पैसे तो उनके पास थे नहीं तब वे मजदूरी करने शहर को जाया करते थे। बरसात के दिनों में मकई की फसल बारिश के भरोसे उगाकर वो दाडकी पर जाते थे। ६० रु रोज़ कमाकर अपनी जैसे तैसे आजीविका चलाया करते। हकरू ने पढ़ने में दिल लगाया तो उसकी किसी तरह ना टूटे इसका ध्यान भी उन्होंने रखा था। जब वह छठीं का छात्र था उस समयशहर में कहीं से सस्ती सायकल लाकर उन्होंने हकरू को ला दी थी। सुदूर आदिवासी अंचल में उस वक्त कोई साधन नहीं थे और झोंपड़े से शहर जाने के लिए करीब तीन किलोमीटर पैदल चलना होता था। हकरू को जब सायकल मिली तो उसका उत्साह बढ़ गया था । कच्ची गड़ारों पर वह पिता को बस जाने के लिए छोड़ आता। उसका बड़ा भी उससे पांच साल बड़ा था मकान छोटा जानकार उसने एक घर पास ही में बना लिया था और पास की जमीन पर अतिक्रमण कर खेती करने लगा था । हालांकि पिता की ही तरह उसे भी काम से घर लौटने पर जो समय मिलता उसी में बड़ी मेहनत कर उसने घर बनाया था । बेसरम की सुखी लकड़ियों की दिवार खड़ी कर उसने भी पिता ही की तरह गोबर से लीप कर यह मकान बनाया फिर एक दिन बैलगाड़ी में कवेलू लाकर उसने छत बनाई थी। बस ये दो ही मकान है जो पंचायत में "नगजी का रुंडा " के नाम से दर्ज है। झोंपड़ों के पास बना टीला खेत से बीनकर निकाले छोटे बड़े पत्थरों को इकट्ठा किए जाने से बना है। टीले पर खड़े होने से सारा उबड़ खाबड़ खेत एक साथ दिखाई देता है। मुरुम के इस पठारी इलाके में खेती कितनी कठनाई भरी होगी सहज अनुमान लगा सकते हैं। चिड़िया भगाने के लिए भी इसी टीले का इस्तेमाल होता है। यानी इस टीले की उम्र आज बीस बरस की हो चुकी है। आज अनास नदी पर बनाए गए बाँध से लिफ्ट इरिगेशन के जरिये निकाली नहर से खेती हो रही है। और इसने आर्थिक प्रगति के सोपान रचे हैं। हकरू अब पढ़ लिखकर वन रक्षक की सरकारी नौकरी में है । उसे नौकरी वहीँ मिली है जहां का वह रहने वाला है । धुल उडाती पहाड़ियों के बीच बसा यह गाँव आसपास के जंगल कट जाने के बाद अब कहीं जाकर प्रधानमन्त्री सड़क योजना की सड़क से जोड़ा गया है। सोलर लाईट की व्यवस्था दो बरस पहले हुई थी। हकरू आज आदिवासी मजदूर नहीं शासकीय सेवारत होकर वनवासी भूमि का हकदार कृषक भी है। टीले पर चढ़े "राजा" ने उतरकर घर के सामने की सड़क को क्रोस किया और झाड़ियों के बीच बने रास्ते पर दौड़ पडा फिर तुरंत ही वहां से लौटा तो वह घबराया जान पडा। राधू को याद आया की राजा टीले पर चढ़ा था फिर भागकर कहीं गया था तो उसने भी टीले पर चढ़कर देखा। टीले से उसे लगा कि कोई अजीब सा जानवर अपने शिकार को घसीटकर नीचे नाले की और जा रहा है। देखते ही देखते शिकार और शिकारी जानवर ओझल हो गए। राधू पास जाकर देखना चाहता था मन में बड़ी खलबली जो थी। मगर माँ की आवाज़ सुन वह भोजन को जा बैठा। भोजन कर उसे स्कूल जाना था। भोजन करते उसने माँ को बताया की एक जानवर किसी गाय जितने बड़े जानवर को घसीट कर नाले की दिशा में ले गया है उस पर काली सफ़ेद पट्टियां थी और पीठ पर बड़े बड़े बाल नज़र आते थे। माँ को शेर होने का अहसास हो गया उसने अपने ससुर नगजी को यह बात बताई तो उसने सामान्य बात की तरह नजरअंदाज कर दिया। हकरू आज रेंज ऑफिस पर तलब किया गया था सो वह वहां गया था। शाम को लौटने पर उसने यह समाचार सुना तो उसने दुसरे दिन वहां जाकर पता लगाने की बात कही। वायरलेस सेट पर उसने संपर्क करना चाहा जो कभी कभी चल पड़ता था मगर आज यह संभव न हो पाया था। सुबह एक बार पुनः कोशिश करने की सोच वह सो गया । सवेरे जब वह उठा तो घना अंधियारा था लगभग चार बजे के आस पास जो गाय दुहने और पशुओं को चारा खिलाने का वक्त आंका जाता है। घर से वह रात में भिगोए भूसे की तगारियां लेकर बैल और गाय के पास जा पहुंचा फिर पास के पेड़ से घांस उतारने लगा । उसका भाई ताड़ के पेड़ पर मटकियाँ लटकाने के लिए ऊपर चढ़ा था और अब कल बाँधी गई मटकियों को लेकर नीचे उतर रहा था । घर में जाकर हकरू ने पानी की बाल्टी में पानी लिया और गाय दुहने के पहले उसने बछड़े को गाय के पास छोड़ा बछड़े का मुह छुडाकर उसने थान धोए और अब दूध निकालने लगा। अंधियारा धीरे धीरे छंटने लगा था सूरज रजाई में दुबका सा बाहर निकला था। गुलाबी काली रंगत का रंग जैसे जैसे बदलता गया आसमान भी नीले रंग का नजर आने लगा । सूरज की आभा गुलाबी लाल नारगी होकर पीली हुई फिर सुनहरा अग्नि रंग चमकने लगा । पास दूर के पठार कोहरे के आगोश से निकलने लगे लाल मुरुम के ये पहाड़ जो कभी पलाश, सागौन, खैर, आंवला, नीम, जंगलजलेबी , अनार , करोंदे , बैर आदि से पटे पड़े थे अब वृक्ष विहीन खड़े थे। सुबह का उजियारा फैलता जा रहा था सुबह आठ बजे तापमान चौदह डिग्री था और सूरज जमीन पर झोंपड़ी की परछाई के साथ ३० अंश का कोण बना रहा था और अपनी मुंदी हुई आँखों को हौले हौले खोलने लगा था। हकरू ने हाथों में डंडा उठाया और बताई हुई नाले की दिशा में चलाना प्रारंभ किया तो राजा भी उसके साथ हो लिया। कभी आगे कभी पीछे चलते हुए उसने हकरू का साथ देना प्रारंभ कर दिया। अभी कोई डेढ़ सौ मीटर दूरी तय करने पर उसने बड़े से पंजों के निशान जमीन पर देखे। कुत्ते के पंजों जैसे निशान वहां थे उसने ठिठक कर भुरभुरी मिटटी पर बने निशानों को झाड़ियों से सुरक्षित किया वह अनुमान लगा रहा था वरघड़े या भेडिये का । सुदूर पहाड़ी अंचल में अब थोड़े ही जानवर शेष बचे हैं घोडारोज़ यानी नीलगाय अब वापस कभी कभार दिखाई देती है। बटेर, तीतर, कड़कनाथ जैसे पक्षी सियार लोमड़ी बिच्छु सांप सेहीगोह गोयरा और खरगोश यहाँ संसूचित थे। वरघड़ा के बारे में सुना तो था मगर वह दीखता कैसा है, कितना बड़ा होता है आदि नहीं जानता था आगे बढ़ने पर उसे जानवर घसीटे जाने के निशान दिखे जो लगभग गाय जितने बड़े होने का अनुमान दे रहे थे। वरघड़ा के बारे में उसने सुना था की भेड़ बकरियां और बंधे जानवर को वह खा जाता है। मरे जानवर भी उसे कईयों ने खाते देखा है। सहमे क़दमों से वह आगे बढ़ा तो उसने देखा की एक अध् खाई जानवर की लाश पड़ी है सिर पानी में डूबा है जबकि पीछे का हिस्सा और सीने की हड्डियां साफ़ हो चुकी हैं। नाले के किनारे ऊँची झाड़ियों से उसे डर लगने लगा तो डंडे को जमीन पर ठोक झाड़ियों पर डंडे के प्रहार किए और आगे बढ़ा। नीलगाय की लाश उसने महसूस की पोखर का पानी रक्तरंजित था। एक पैर नदारद था , अंतड़ियां बाहर पड़ी थी। गर्दन टूटी थी जिसमे से खून का रिसाव हुआ था । जो हिस्सा ऊपर की और था वह ही खाया जा चुका था। कीचड में उसे पग मार्क मिलाने की उम्मीद हुई। पगमार्क यहाँ पाकर वह बड़ा ही खुश हुआ। घर लौटकर उसने एक बार फिर वायरलेस खटखटाया मगर असफल रहा किसी से बात न हुई। रेंज कार्यालय तक वह अपनी मोटर सायकल से पहुंचा उन्हें सारी बात बताई फिर वहां से मंडल कार्यालय को सूचित कर वे प्लास्टर ऑफ़ पेरिस , एनीमल रेफरेंस बुक , कांच की स्लाईड , स्केच पेन , बटर पेपर , पानी की बोतल , मग आदि सामान लेकर नाले की ओर जाने को निकले । हकरू के घर गाड़ियां खड़ी कर कच्चे रास्ते पर फिर आगे बढे । निशानों पर हौले से कांच जमाकर पगमार्क ट्रेस किए । फिर मग में प्लास्टर ऑफ़ पेरिस घोलकर मिटटी पर उडेला ओर निशानों को प्लास्टर पर लेने की कोशिश की मगर ठीक से निशान नहीं आने से वे निराश हो गए । लाश की और आगे बढे तो वहां कुत्ते आ गए थे जो लाश के साथ खींचतान कर आपस में लड़ झगड़ रहे थे । कीचड पर निशान उन्हें सुरक्षित मिला इसमे प्लास्टर का घोल डालना और सुखाना मुश्किल था सो सूखे पावडर छिड़क कर उन्होंने पगमार्क का प्रिंट तैयार किया मगर प्लास्टर को सूखने में देर लगी । अब घर के बाहर जानवरों को खतरा था सो जंगल की कंटीली झाड़ियों से बाड़ बनाई गई इसमें भी बची खुची झाड़ियों का उपयोग हुआ । पालतू जानवर जो बचाने थे। वरघड़ा की जरक, लकड़बग्घे यानी इन्डियन स्ट्राइप्ड हाईना के रूप में पहचान राधू ने एनिमल्स रेफरेंस बुक की मदद से की। राजा ही था जो आज वनविभाग की सूचि में एक नए वन्य पशु को जुड़वा सका वह भी ऐसे क्षेत्र और समय में जबकि काले हिरण,चौसिंगे,तेंदुए और बार्किंग डीयर के लिए पचास बरस पहले कभी समृद्ध रहे क्षेत्र में प्रगति की अंधी आंधी के चलते बरसों से नहीं दिखा था।

अस्पताल का सांप?

सरकारी अस्पताल का परिसर जीर्ण शीर्ण भवनों का स्थान था। तीस बरस से पहले बने इस अस्पताल के भवन का भी बुरा हाल था। पतरे की छत पर बिछे खपरैल टूट गए थे और अब आधे अधूरे ही बचे थे। पतरे भी सड़ गए थे। सपोर्ट के लिए लगा लकड़ी का बीम तड़क गया था । दरवाजों की हालत भी टूटी फूटी हो चली थी। पलस्तर भी उखड गया था।अस्पताल में चिकित्सकों के दो कमरे थे। एक कमरा दवाई वितरण के लिए कंपाउडर के सुपुर्द था । मरहम पट्टी कक्ष और शस्त्रक्रिया कक्ष की व्यवस्था दी गई थी। जैसे जैसे समय बीता प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में सुविधाए बढ़ी। बिस्तर , एम्बुलेंस ,प्रयोगशाला के अलावा प्रसूतिगृह का निर्माण भी हुआ।अमूमन अस्पतालों के नजदीक नई आबादी विस्तारित हुई और सड़क के आसपास आम इमली के पेड़ भरपूर थे। अस्पताल की पिछली दीवार के समीप एक भयावह ईमली का पेड़ था। भयावह इसलिए कि उसमे अजीब सी खोह और आकृतियाँ निर्मित हो आई थी। एक कोटर में उल्लुओं ने बसेरा कर लिया था। दिन के समय में भी आसपास खडी मेहंदी की बागड़ झाड़ियों से भरा उंचा सा टीला और वहां का डरावना एहसास सहसा किसी को जाने से रोक दिया करता था सो यह स्थान निर्जन बना रहा।अस्पताल में प्रसूतिगृह क्या बना यहाँ सभी तरह के काम होने लगे। कुछ घरों में इसने जहां घरों के चिराग रोशन किए तो कई अवांछित अवैध संताने गिराने का धंधा भी फलाफूला। खासतौर पर कन्याभ्रूण हटाए जाने का। अस्पताल में महिला चिकित्सक की नियुक्ति तो हुई मगर सिस्टर मेरिंडा की यहाँ रौबदारी रही। होती भी क्यों न? सभी गाँव वालों के अच्छे बुरे की मदद इसी से मिलती जो थी।ईमली का यह पेड़ और इसके नजदीक का यह वीराना अनचाहे गर्भ की कब्रगाह बन गया बरसों तक इस पेड़ के नीचे कई भ्रूण दफ़न होते रहे। दिन में कौवे और रात में चमगादड़ यहाँ डेरा डाले रहते।अस्पताल की इस बिल्डिंग को पूरी तरह तोड़कर नया भवन बनाए जाने के लिए शासन ने पैसे मुहैय्या करवाए। ठेकेदारों से इसे तोड़े और बनाए जाने के टेंडरों की विज्ञप्ति प्रसारित हुई।अस्पताल को जब तक नया भवन नहीं बन जाता पंचायत भवन में स्थानांतरित किए जाने की व्यवस्था दी गई। अब अस्पताल को खाली कराया जाना था। सबसे पहले स्टोर में जमा सामान हटाने का काम किया जाने की शुरुआत हुई। कंपाउडर, टेक्नीशियन अपने काम में संलग्न थे और पीछे का कमरा जो कई सालों से बंद पडा था खोला जाकर उसमे रखे सामान की लिस्ट बनानी थी फिर उसे कहीं अन्यत्र रखवाया जाना था। दरवाज़ा खोलने के सारे प्रयास असफल हो गए तो प्रभारी चिकित्सक को बताया गया , उन्होंने कहा की जब भवन ही तोड़ देना है तो दरवाज़े का क्या?..... तोड़ डालो दरवाज़े को। अस्पताल में कभी एक्स रे के लिए बनाया मगर कभी उपयोग में न लाया गया कमरा बड़ा ही अंधियारा था। यहाँ लाईट की व्यवस्था भी नहीं दी गई थी। इसकी पिछली दीवार पर एक्जास्ट के लिए गोल खिड़कीनुमा निर्माण भी था जो इमली की बढ़ आई डाली से सट आया था। कमरा अनुपयोगी रहा था और बिजली प्रकाश की व्यवस्था न होने से दिन में भी इस्तेमाल नहीं हो सकता था।दरवाजे को तोड़े जाने का निर्णय सुनकर सभी कमरे के सामने इकट्ठे हो गए । दरवाज़े को खींचा धकेला गया । किसी ने लकड़ी फंसा कर तोड़ डालने की बात कही। रूटीन के काम करने वाले शासकीय कर्मचारी अपने काम से काम रखते हैं सो दरवाज़ा तोड़ने के लिए बाहर से मजदूर बुलाया जाना तय हुआ। हरिया ने दरवाज़ा तोड़ने के लिए सौ रुपये मांगे तो भावताव हुआ पैसे कहाँ से आयेंगे इस पर चर्चा हुई। जैसे तैसे वह अस्सी रुपये में काम करने को तैयार हुआ। गुस्से में हरिया ने एक पत्थर उठाया और दरवाज़े पर दे मारा । पत्थर से दरवाज़ा टुटा तो नहीं मगर उसमे एक छेद जैसा पड़ गया । पत्थर उठाने मे हरिया को लगा की कमरे मे से सांप जैसा बाहर आया है तो वह भागा । उसे देख दुसरे भी भागे । कुछ समझ मे nahi aayaa की हुआ क्या है ? हांफते हुए हरिया ने वहां सांप होने की बात कही और वो वहां जाने को अब तैयार भी नहीं था। कह रहा था पैसे गए भाड़ में दूसरी जगह दाडकी कर कमा लूंगा अब वहां अँधेरे में तो बिलकुल ही नहीं जाऊँगा। एक तो अस्पताल डरावना ऊपर से भूतहा कमरा। न बाबा ना मुझे नहीं करना काम। अब सांप के होने की बात से भयभीत वहां जाने को तैयार नहीं था । किसी ने सुझाया की दीपक लगाओ , पूजा करो अगरबत्ती लगाओ तो शायद नाग देवता चले जाए ऐसे कहाँ कहाँ और कब कब हुआ की बाते भी हुई । अब अगरबत्ती दीपक ले नाग देवता से वहां से चले जाने की गुहार भी हुई । मगर वह मोटासा सांप तस से मास ना हुआ अब सब अपनी खैरियत के नाम पर पैसा खर्चने को तैयार हो गए । कन्हैया जो हरिजन से ड्रेसर बन गया था ने सबसे पैसे ऐंठे और सायकल उठाकर किसी सांप पकड़ने वाले को लेने चला गया । बाहर मरीज़ थे और भीतर सांप । मरीजों का जैसे तैसे इलाज की व्यवस्था देने के लिए नीम के नीचे टेबल लगाकर व्यवस्था की गई। सांप बाहर निकलते वक्त कहीं भी गुस जो सकता था । यह चर्चा भी थी की सांप आया कहाँ से होगा । इतना मोटा सांप कभी किसी ने पहले देखा भी जो ना था । सांप कैसा भी हो जहरीला हो न हो डरावना तो होता ही है। कन्हैया अपनाने पीछे सपेरे को बैठा लाया था और पैसे की बात किसी और से न करने की हिदायत भी दे कर ही लाया । सपेरे ने भीतर जाकर देखा फिर कन्हैया से मोल भाव करने लगा जैसे तैसे सौदा चार सौ रुपये में तय हुआ । नाग देवता ने बचे पैसे उसे बक्सिश में दे दी थे तो वह खुश हो गया ।सपेरे ने झोले में से चिमटा निकाला और लकड़ी लेकर वह जा घुसा भीतर । उसके भीतर घुसते ही सब के सब पीछे हो लिए की वह सांप कैसे पकड़ता है। सपेरे ने सांप को देखा तो वो वहीँ था । लकड़ी से हिलाया तो वह फुदका । सपेरा डर गया और पीछे आ गया । कहने लगा साब बड़ा खतनाक जनावर है उछलता भी है। चिमटे से ही पकड़ के काबू करना पडेगा । वह फिर अँधेरे में घुसा और चिमटा लेकर झपट पडा मगर सांप चिमटे से छुट गया जानकर वह वहीँ धडाम से जा गिरा । और सांप जो सांप था ही नहीं वरन मोटी मोटी आँखों वाला मोटा सा एक कबरबिज्जू था जो तेजी से निकल कर खड़े लोगों के बीच से निकला । लोग इस अप्रत्याशित घटना से बिदके घबरा से गए और उनमे से कुछ गिर पड़े । डाक्टर साहब को टेबल आ लगी । कन्हैय्या सकते में था जैसे जैसे बात समझ में आने लगी और सपेरे के गिर जाने की बात पता चली तो सारे अस्पताल में हंसी की फुहारे चल पड़ी । आज भी सारा गाँव सपेरे को चिमटा दिखा चिढाता है और जब कभी सांप की खबर सुनाई पड़ती है कबर बिज्जू याद आता है जो अस्पताल में अवैध और कन्या भ्रूण खाने को रहने लगा था ।

Friday, January 21, 2011

सड़क दुर्घटना मे लकड़बघ्घा मृत




सडकों पर यो तो आये दिन दुर्घटना घटती रहती है मगर रतलाम जिले मे वन्य प्राणियों की मृत्यु के मामले कम होते हैं । विगत १० वर्षों के आंकड़े देखे तो सियार की दुर्घटना ट्रक या अन्य वाहनों से होती रही मगर अनुभव यह रहा की ये सभी रतलाम उज्जैन रोड पर बडनगर के पास देखी गई और वे सभी उज्जैन जिले से सम्बंधित रहीं । आज सवेरे ग्रुप सदस्य नरेंद्र शर्मा ने बताया कि जावरा कि तरफ जाने वाली सड़क पर शायद लकड़बघ्घा मृत पडा है ।बड़े आश्चर्य कि बात है कि यहाँ बड़ी सवेरे कि बेला मे सड़क पार करते वक्त यह लकड़बघ्घा ट्रक कि चपेट मे आया और उसके मुह पर पहिया फिर गया। मौका मुआयना करने पर पाया कि पेट्रोल पम्प के सामने खेत से निकल कर जब लकड़बघ्घा सड़क पर आया होगा तब वह सड़क पार करते वक्त जावरा कि ओर जाने वाली फोरलेन कि बायीं और से जा रहे वाहनों कि रफ़्तार को समझ नहीं पाया ओर चपेट मे आ गया ।तहकीकात करने पर पास कि ढाबा मालकिन संतोष ने बताया कि सवारे नीलगाय का पीछा करते हुए यह जरक सड़क पर आ गया था ।वन विभाग को सूचित किए जाने पर एक दल ने उसका पोस्टमोरटम कराया और अंतिम संस्कार किया । लगभग ४ बरस के इस indian striped hyna कि उपस्थिति वन विभाग को ज्ञात थी । गाँव के लोग इस वरगडा के नाम से भी जानते हैं ।